Tuesday, February 6, 2018

पुराना प्लेटफ़ॉर्म

यह लघुकथा  दो साल पुरानी है.

-:पुराना प्लेटफ़ॉर्म:-
दिसम्बर का महीना था. पूरे उत्तर भारत में सर्दी अपने चरम पर थी. मैं दिल्ली से अपने शहर शाहजहांपुर के लिए रेल द्वारा जा रहा था. कोहरे के कारण अधिकतर ट्रेनें धीमे चल रहीं थीं. कई बार बीच-बीच में रुक भी जाती थीं. जिससे कि मेरे अन्दर और भी झुंझलाहट बढ़ जाती थी.

फ़िलहाल शाम के नौ बजते बजते ट्रेन ने जैसे तैसे बरेली पार कर लिया था. हलाकि इसको 7:30 तक शाहजहांपुर पहुच जाना था. ट्रेन पूरा डेढ़ घंटा विलम्ब से चल रही थी. अब सिर्फ यहाँ से आधे घंटे की दूरी मात्र थी. लेकिन एक बार फिर ट्रेन सर्दी में उंघती हुई ‘चन्हेटी’ नाम के एक छोटे से प्लेटफार्म पर रुक गई. 9:28 हो गया था लेकिन ट्रेन वहां से बढ़ने का नाम ही नहीं ले रही थी. कई लोग प्लेटफार्म पर उतर आये थे. मैं भी समय बिताने के लिए प्लेटफार्म पर आ गया था. स्टेशन मास्टर की कोठरी और उसके आस-पास कुछ मंदिम बल्ब ही जल रहे थे. बाकि पूरा प्लेटफ़ॉर्म अंधकार में डूबा हुआ था. कुछ बूढ़े एक कोने में बैठे हुए किसी पैसेंजेर ट्रेन के आने एक इंतज़ार कर रहे थे.
प्लेटफार्म के छोर पर कोने में एक महिला बैठी हुई थी. उसकी गोद में एक छोटा सा बच्चा था. सर्दी से उसका शरीर कांप रहा था. फटी हुई शाल से वह कभी अपने बच्चे को ढकने की कोशिश करती तो कभी अपने शरीर को ढकने की कोशिश करती थी. फटे पुराने चिथड़ो से उसका जिस्म यहाँ वहां से झांक रहा था.
ऐसी दरिद्र दशा किसी भी सहृदय मनुष्य को झझोड़ कर रख दे. न चाहते हुए भी मेरे कदम उसकी ओर बढ़ गये. मैंने एकटक उसके बच्चे को देखा. वह यहाँ वहां से वापस शाल को ठीक करते हुए अपने शरीर को ढकने की भरपूर कोशिश करने लगी.
मैंने बिना कुछ बोले ही उसकी दशा को देखते हुए पॉकेट से एक सौ रुपये का नोट निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया. पहले तो उसने एकटक मेरा चेहरा देखा और फिर गोद से बच्चे को उतारकर बोली “उधर चलो साहेब. उस पुराने प्लेटफार्म के पीछे कोई नहीं आता.”
– उस्मान खान

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